This poem is about the increasing violence in the name of religion by people who probably do not understand the concept of religion in itself.
ना पहनते रामनामी तन पर अगर हम,
बस सत्यवाद का कभी किसी नें तप लिया होता ।
ना लुटाता कोई दान में हीरे या मोती,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जो होता ।
जीवन रहता धर्माडंबरों सॆ दूर पर
सत्यवाद का कभी किसी नें तप लिया होता ।
धर्मो के नये अर्थ निकालने से पहले
कभी धर्म को समझने का प्रयत्न किया होता ।
ना होती तब एक दुनिया में तब इतनी कई दुनिया,
ना होती तब एक माटी पर इतनी कई माटी,
ना होती रोज के खेल जैसी ये हिंसा.
रक्त नहीं, फूलों से महकती धरती की घाटी ।
November 4, 2016 at 7:24 am
It is great. 🙂 well written.
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November 4, 2016 at 7:28 am
Thanks a lot Sweta 🙂
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November 4, 2016 at 10:19 am
Beautiful poem….nicely presented
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November 4, 2016 at 11:36 am
Thanks a lot Rohit 🙂
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June 21, 2018 at 8:40 pm
उस उम्र में इतनी बड़ी सोंच और उसे पन्नो में सहेजा।लाजवाब।बहुत ही खूबसूरत रचना है।
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June 21, 2018 at 8:46 pm
dhanyavaad 🙂
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June 21, 2018 at 8:42 pm
बहुत ही खूबसूरत रचना।उस उम्र में इतनी बड़ी सोच और उसे पन्नों में सहेजना वाकई लाजवाब।
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June 21, 2018 at 8:46 pm
🙂
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