जीत और हार

हर खामोशी के पीछे एक सैलाब उमड़ने कॊ है खड़ा,
पर दुनिया के इन सवालों में कुछ तेज़ाब हॊता है 
इंसान सोचता है कभी मिलेगा एक पल सुकून का
पर कुदरत का खुशी से कुछ इंतकाम होता है 

चाहते हैं बहुत कुछ जो मिल नहीं पाता,
जो मिले उन पर नक़ाब दर नक़ाब होता है 
हम मॉंगते रह जाते हैं एक लम्हा चाहतों का,
बस तभी धोखों का आना बेहिसाब होता है 

पाना चाहते हैं सभी ये फ़लक, ये सितारे,
तभी मन का मन को बहकाना भी कमाल होता है I
हम गिड़गिड़ाते रह जाते हैं ख़ुद के आगे ख़ुद की ख़ातिर,
ऐसे में ख़ुद से हार जाना ही क्यों अंजाम होता है I

यूँ सुनो तो लगती है ये दास्तॉं कितनी अलग,
फिर भी ये सिलसिला कितना आम होता है I
हम खामोश से रह जाते हैं हर बार ख़ुद से लड़कर,
फिर भी क्यों यही सब बार बार होता है I

6 thoughts on “जीत और हार

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  1. आपका लेखन अच्छा है, पर आपको उसे उत्कृष्ट करना होगा। उसमें कसाव, पैनापन और लाना होगा। 😊

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